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|सारणी=केनोपनिषद / मृदुल कीर्ति
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<span class="upnishad_mantra">
यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम् ।<br>
यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नु मीमाँस्येमेव ते मन्ये विदितम् ॥१॥<br>
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मन, प्राण में, ब्रह्माण्ड में, नहीं ब्रह्म है ब्रह्मांश है।<br>
तुमसे विदित ब्रह्मांश जो, वह तो अंश का भी अंश है॥ [ १ ]<br><br>
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नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च ।<br>
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥२॥<br>
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जिन्हें विज्ञ पर अनभिज्ञ हैं, ऋत रूप में वे विज्ञ हैं॥<br>
ज्ञानी जो ब्रह्म विलीन हैं, उन्हें ब्रह्म ज्ञान का भान क्या ?<br>
ज्ञेय ज्ञाता ज्ञान का उन्हें ज्ञान क्या अभिमान क्या ? [ ३ ]<br><br></span> <span class="upnishad_mantra">प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते ।<br>आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥४॥<br>
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