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|रचनाकार=कुंजन आचार्य
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|संग्रह=थार-सप्तक-4 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
घणो भण्यो
घणो हमज्यो
पण मनखां में ओलखवा री बात पे
मूं चक्कर खाई जाऊं।

मनख जमारो मल्यो
तो घणा राजी विया।
चौरासी लाख योनी रा फेर में
घणा जीव दोरो विया।
बात विचार
खबर समीचार
सन में खूब गोता लगाया
पण मनखां रा अजब वैवार
हमज नीं आया।
म्हारी नानी मा कैव‘क
मनख री पैचाण करवा री
तरकीब ई होणी जरूरी है।
या तरकीब नी आवै जद
मनख-मनख में दूरी है।
पल-पल बदळतो मन
अर पल-पल बदळता वैवार
मनख री रीत एक पल अणी द्वार
दूजे पल बणी द्वार।
बदळाव तो जग री रीत है
अणी रीत सूं मन नै समझाऊं
पण मनखां ने ओळखवा री बात पे
मूं चक्कर खाई जाऊं।
</poem>
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