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|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=आईना-दर-आईना / डी. एम. मिश्र
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<poem>
माना इक सुंदर शहर यहाँ।
पत्थर ही पत्थर मगर यहाँ।

जो निगल रहा है गाँवों को,
बैठा वो असुर है किधर यहाँ।

छमिया भट्ठे की मजदूरन,
कोठे तक की है सफ़र यहाँ।

मँहगू ठेले में नधा रहा,
फाँके पर करके गुज़र यहाँ।

खाने-पीने की चीज़ों में,
भी, कितना घुला है ज़हर यहाँ।

हर तरफ मशीनें दिखती हैं,
इन्सान न आता नजर यहाँ।

रूपया-पैसा मिल जाता है,
चैन न मिलता मगर यहाँ।
</poem>
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