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|संग्रह=पत्थरों के देश में देवता नहीं होते / अर्चना कुमारी
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<poem>
रात के पहाड़ को काटकर
सपने पठार होंगे
उपजेंगी सीढ़ीनुमा खेतों में
दर्द की फसलें
चरवाहा गीत गाएगा
गड़ेरिया हांक ले जाएगा
अपनी भेड़ें
खूटे से बंधी गाय की आंखों में
हरियाली तैरकर बहती होगी
रंभाते बछड़ों के सुर में
अवसान से पूर्व का आलाप होगा
हाथ की उभरी लकीरों का दाग
घिसकर मिटाएगी
ज़िंदगी समय के पत्थर पर
दीवारों से सर टकराते लोग
नहीं ठहरेंगे किसी मोड़ पर
किसी इंतजार में
औपचारिकताओं की धूंध ने
काटी संवेदना की सांस
कि मैय्यत में जाते हुए भी
सुविधा नहीं भूलता आदमी
पांव की पीठ पर
उकेरना नींद
वहम को थपकियां देना
सुनाना लोरियां मन के बहरेपन को
कि फिर जागती देह का जागना
पठार से पहाड़ होकर...।
</poem>
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