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{{KKRachna
|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=इज़्ज़तपुरम् / डी. एम. मिश्र
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
रोज़ यही देखती है
और सोचती है गुलाबो
जो यात्री पहले
घुस जाते हैं बोगी में
बड़ी हकदारी का
ठोंक कर दावा
काबिज़ हो लेते हैं
पूरी बर्थ पर
बाद में जो आते हैं
बेचारे वो माँगते हैं
गुंजाइश भर जगह
पुट्ठे टिकाने के लिए
छोटी यात्राएँ पर
बड़ी लोकशाही
बर्थ पर
लेटा
बैठा / कोई
फ़र्श पर / खड़ा
पड़ा / कोई
</poem>
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|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=इज़्ज़तपुरम् / डी. एम. मिश्र
}}
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रोज़ यही देखती है
और सोचती है गुलाबो
जो यात्री पहले
घुस जाते हैं बोगी में
बड़ी हकदारी का
ठोंक कर दावा
काबिज़ हो लेते हैं
पूरी बर्थ पर
बाद में जो आते हैं
बेचारे वो माँगते हैं
गुंजाइश भर जगह
पुट्ठे टिकाने के लिए
छोटी यात्राएँ पर
बड़ी लोकशाही
बर्थ पर
लेटा
बैठा / कोई
फ़र्श पर / खड़ा
पड़ा / कोई
</poem>