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10:35, 19 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सुरेश चंद्रा
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|संग्रह=
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<poem>
केतकी
कल फिर
गुलदान छूट गिरा तुमसे
घर बिखरा ही रह गया
कपड़े गुनसाम गँधाते रहे
रोटियाँ जला ली तुमने
क्या सोचती रहती हो ??
क्या खदबदाता है अंदर ??
अब, जब-जब धधकना
अश्रुओं की आंच मद्धम कर लेना
जब-जब बिखरना
संवारना, मन की बिगड़ी रंगोली
घर की सूनी देहरी पर
जलना तुम, दीये की बोली
ये सवाल, अब बदल दो
मैं कौन, क्यूँ, कहाँ, किसलिए
कहो
मैं वही, यूं, वहीं, इसलिए
सांस लेना पल-पल का उद्देश्य है
समझौते और समझावन लिये
जीवन, मरणोत्तर एक क्रियाशील शब्द है
</poem>