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<poem>
झुके हुए चेहरे
कमानी रीढ़
सियासी प्रश्नों की लकुटिया टेके
हृदयहीन सामंती समाज वह
किसी आदम युग में
जड़ें जमाये अबतक
एक सपने की
भ्रूण-हत्या के बाद
देख रहा है-
धरती के गर्भ में
अभी और क्या बचा पड़ा है
अपना अस्तित्व-
अपनी आन-
स्वाभिमान-पगड़ी- समाज
सब तलाशते उस कुएं में
और वहां
उस सपने की लावारिस लाश
देखते हो तुम
अगर वह जीता
तो हो जाता एक आम दंपत्ति
आज वह एक अंतरजातीय
प्रेम कहानी है
यहाँ इस गाँव की प्यास
पानी से नहीं
पानी में
अपने अक्स टटोलते
प्रतिध्वनि अगोरते
दंभ से बुझेगी
बस!
प्रकृति नहीं जनेगी प्रीत
धरती बाँझ हुई.
</poem>
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