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<poem>

उस गली से जब गुज़रते हम चले जाते हैं दोस्त
पूछ मत कितना सिसकते और पछताते हैं दोस्त!

ज़िन्दगी को खा गयी है मस्लेहत बे-शक़, मगर
तुम यकीं मानो कि इससे ख़ूब-तर खाते हैं दोस्त

वक़्ते-शब घर से बुला कर के थमा कर के 'शराब'
सुब्ह को दुनिया के हो कर तंज़-फ़रमाते हैं दोस्त

सब नवाज़िश है तिरी ही के ख़लिश है दम-ब-दम
पाँव पड़ते हैं चला जा, ‘अब कसम खाते हैं दोस्त’

अब ख़ुशी मिलती नहीं है सिर्फ़ डर लगता है 'दीप'
जब अचानक आ के साँकल, पीटते जाते हैं दोस्त
</poem>