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{{KKRachna
|रचनाकार=कैलाश पण्डा
|अनुवादक=
|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
प्रयास
स्वयं के वजूद का
कयास
कार्यक्रम के माध्यम से
ना मजिंल
ना ढोर
ना रात्री
ना भोर
स्वयं को प्रदर्शित करना ही
केवल मेरे लिए.....
चाह फैलने की
कुहनी मारकर भी
सद्ग्रन्थों के प्रकाश से
सुदूर-प्र्रदेश में
कहीं-अंधेरी कुटिया में
निवास स्थान है मेरा
समीक्षा करता हूं
मचं पर सदैव
आगे रहता हूं
स्वयं को
विदुर की भांति
रचनाओं के माध्यम से
प्रस्तुत करता हूं
वहीं बोलता हूं
जो जनता चाहती है
शास्त्री की बातों से अनभिज्ञ
प्रगति की बात करता हूं
जो मेरे विवेक से परे है
उन विचारों की
काटता हूं
अपने अस्तित्व को
बनाये रखता हूं।
</poem>
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|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
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प्रयास
स्वयं के वजूद का
कयास
कार्यक्रम के माध्यम से
ना मजिंल
ना ढोर
ना रात्री
ना भोर
स्वयं को प्रदर्शित करना ही
केवल मेरे लिए.....
चाह फैलने की
कुहनी मारकर भी
सद्ग्रन्थों के प्रकाश से
सुदूर-प्र्रदेश में
कहीं-अंधेरी कुटिया में
निवास स्थान है मेरा
समीक्षा करता हूं
मचं पर सदैव
आगे रहता हूं
स्वयं को
विदुर की भांति
रचनाओं के माध्यम से
प्रस्तुत करता हूं
वहीं बोलता हूं
जो जनता चाहती है
शास्त्री की बातों से अनभिज्ञ
प्रगति की बात करता हूं
जो मेरे विवेक से परे है
उन विचारों की
काटता हूं
अपने अस्तित्व को
बनाये रखता हूं।
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