भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
बात हो रही है अब इल्म के ज़ख़ीरों की
लामकां मकीनों की, खुशनुमा जज़ीरों की
बात हो रही है अब इल्म के ज़ख़ीरों की
 
हर ख़ुशी क़दम चूमे कायनात की उसके
रास आ गयीं गईं जिसको सुह्बतें फ़क़ीरों की
सूर, जायसी, तुलसी और कबीर, ख़ुसरो को
बेबसी से तकती हैं दौलतें अमीरों की
सूफ़ियों की संगत में सब तुझे अता होगाछोड़ दे अगर चाहत मख़मली ग़लीचों की
जिस्म की सजावट में रह गए उलझकर जो
रूह तक नहीं पहुँची फ़िक़्र उन हक़ीरों की
राहे हक़ पे चलकर ही मंज़िलें मिलेंगी अब है नहीं जगह कोई बेसबब दलीलों नज़ीरों की हाथ ही में कातिब ने लिख दिया है मुस्तकबिलइल्म हो तो पढ़ लेना ये जुबां लकीरों की देख ले 'रक़ीब' आकर ख़्वाहिशाते जंगल सेगर नहीं यकीं तुझको है यही हक़ीक़त में राह ख़ुशनसीबों इक गुनाह से पहले जिंदगी असीरों की
</poem>
384
edits