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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
अँधेरी रात की फ़ाक़ाकशी मिटाते हैं।
दिलों में फ़स्ल उजाले की हम उगाते हैं।

लड़ाइये न इन्हें आँधियों से बेमतलब,
जला के दिल को दिये रोशनी लुटाते हैं।

उजाला साथ ही चलता है रात भर उनके,
जो बनके चाँद अँधेरे के पास जाते हैं।

अँधेरा काँपने लगता है रोशनी छूकर,
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं।

प्रकाश कम है बहुत, लौ भी काँपती सी है,
चलो ख़याल की बाती जरा बढ़ाते हैं।
</poem>
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