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|रचनाकार=विकास शर्मा 'राज़'
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उम्र भर एक ही सफ़र में रहा
एक ही सौदा मेरे सर में रहा
किसने देखा शनावरी का हुनर
डूब जाना मिरा ख़बर में रहा
मेरे अंजाम का था ये आग़ाज़
उसने आवाज़ दी मैं घर में रहा
कितने मन्तर रुतों ने फूँके थे
फिर भी वो ज़ह्र उस शजर में रहा
</poem>
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उम्र भर एक ही सफ़र में रहा
एक ही सौदा मेरे सर में रहा
किसने देखा शनावरी का हुनर
डूब जाना मिरा ख़बर में रहा
मेरे अंजाम का था ये आग़ाज़
उसने आवाज़ दी मैं घर में रहा
कितने मन्तर रुतों ने फूँके थे
फिर भी वो ज़ह्र उस शजर में रहा
</poem>