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|रचनाकार=विकास शर्मा 'राज़'
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फिर वही शब वही सितारा है
फिर वही आस्माँ हमारा है
वो जो ता'मीर थी, तुम्हारी थी
ये जो मलबा है, सब हमारा है
चाहता है कि कहकशाँ में रहे
मेरे अंदर जो इक सितारा है
वो जज़ीरा ही कुछ कुशादा था
हमने समझा यही किनारा है
अपनी आवाज़ खो रहा हूँ मैं
ये ख़सारा बड़ा ख़सारा है
</poem>
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|रचनाकार=विकास शर्मा 'राज़'
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फिर वही शब वही सितारा है
फिर वही आस्माँ हमारा है
वो जो ता'मीर थी, तुम्हारी थी
ये जो मलबा है, सब हमारा है
चाहता है कि कहकशाँ में रहे
मेरे अंदर जो इक सितारा है
वो जज़ीरा ही कुछ कुशादा था
हमने समझा यही किनारा है
अपनी आवाज़ खो रहा हूँ मैं
ये ख़सारा बड़ा ख़सारा है
</poem>