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|रचनाकार=विकास शर्मा 'राज़'
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सबके आगे नहीं बिखरना है
अब जुनूँ और तर्ह करना है
क्या ज़रूरत है इतने ख़्वाबों की
दश्त-ए-शब पार ही तो करना है
आ गए ज़िन्दगी के झाँसे में
ठान रक्खा था आज मरना है
पूछना चाहिए था दरिया को
डूबना है कि पार उतरना है
बैंड-बाजा है थोड़ी देर का बस
रात भर किसने रक़्स करना है
</poem>
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सबके आगे नहीं बिखरना है
अब जुनूँ और तर्ह करना है
क्या ज़रूरत है इतने ख़्वाबों की
दश्त-ए-शब पार ही तो करना है
आ गए ज़िन्दगी के झाँसे में
ठान रक्खा था आज मरना है
पूछना चाहिए था दरिया को
डूबना है कि पार उतरना है
बैंड-बाजा है थोड़ी देर का बस
रात भर किसने रक़्स करना है
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