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|रचनाकार=विकास शर्मा 'राज़'
}}
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कोई उसके बराबर हो गया है
ये सुनते ही वो पत्थर हो गया है
जुदाई का हमें इम्कान तो था
मगर अब दिन मुक़र्रर हो गया है
सभी हैरत से मुझको तक रहे हैं
ये क्या तहरीर मुझ पर हो गया है
असर है ये हमारी दस्तकों का
जहाँ दीवार थी दर हो गया है
बहुत ख़ुश हूँ उसे बेचैन कर के
हिसाब उससे बराबर हो गया है
</poem>
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|रचनाकार=विकास शर्मा 'राज़'
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कोई उसके बराबर हो गया है
ये सुनते ही वो पत्थर हो गया है
जुदाई का हमें इम्कान तो था
मगर अब दिन मुक़र्रर हो गया है
सभी हैरत से मुझको तक रहे हैं
ये क्या तहरीर मुझ पर हो गया है
असर है ये हमारी दस्तकों का
जहाँ दीवार थी दर हो गया है
बहुत ख़ुश हूँ उसे बेचैन कर के
हिसाब उससे बराबर हो गया है
</poem>