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|रचनाकार=विकास शर्मा 'राज़'
}}
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रात भर बर्फ़ गिरती रही है
आग जितनी थी सब बुझ गई है
शम्अ कमरे में सहमी हुई है
खिड़कियों से हवा झाँकती है
सुब्ह तक मूड उखड़ा रहेगा
शाम कुछ इस तरह से कटी है
हमसे तावीज़ भी खो गया है
और ये आहट भी आसेब की है
सब पुराने मुसाफ़िर खड़े हैं
अब तो मंज़िल भी उकता गई है
उम्र भर धूप में रहते-रहते
ज़िन्दगी साँवली हो गई है
</poem>
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रात भर बर्फ़ गिरती रही है
आग जितनी थी सब बुझ गई है
शम्अ कमरे में सहमी हुई है
खिड़कियों से हवा झाँकती है
सुब्ह तक मूड उखड़ा रहेगा
शाम कुछ इस तरह से कटी है
हमसे तावीज़ भी खो गया है
और ये आहट भी आसेब की है
सब पुराने मुसाफ़िर खड़े हैं
अब तो मंज़िल भी उकता गई है
उम्र भर धूप में रहते-रहते
ज़िन्दगी साँवली हो गई है
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