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स्वप्न टूटते रहे / नईम

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धूप तापते आँगन और उसारे वाले,स्वप्न टूटते रहे सिरे सेकहाँ गए वो सूरज दिन जड़कारे वाले?नींद उचटती रही रात-भर।आसमान गिरने के भय सेपड़ी चीखती रही टिटहरी,
रातें गुरसी की, अलाव कीरोक न पाई करुण भयावहकथरीस्वर-गुदड़ी के अभाव की,लिपि को निस्संग मसहरी;जो, जैसी भी नींद बदलती रही, किंतु थीं-करवटेंठीकआँख फड़कती रही रात-ठीक अपने स्वभाव की।मीठे गए। बचे सूरज दिन खारे वाले।भर।
बातें कथा-वार्त्ताओं-सीआँखों देखी से क्या कम सचबोली-बानी में माँओं-सीकरुण व्यथा जाग्रत कानों की!यूँ तो बहुत आदमी देखे,लिए हुलास ठहाकों वाली-चढ़ीं चंग ऊँचे भावों-सी;सुंदर के सूरज दिन: माटी-गारे वाले।कमी खली पर इंसानों की!
जातें सात जात-सी होकरएक पाँत की निजता खोकरमहसूसी कासों से दूरी,न्यायदेवता सहज सुलम सोए थेजो पास हाथ-भर।पंचों में परमेसुर होकर,सहमति के सूरज दिन ठाकुरद्वारे वाले।को तरह न दे पाता मैंस्याह रात कटने से पहले-अंदेशे भी ठोस हकीकतअघटित से घटने के पहले। बिजली स्याह घटाओं वालीआज कड़कती रही रात-भर,स्वप्न टूटते रहे सिरे सेनींद उचटती रही रात-भर।
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