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10:33, 14 मई 2018
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पार गए तो पौबारह हैं,ऐसे साँचे रहे नहीं अबफिसल गए तो फिर हरगंगा।जो अपने अनुरूप् ढाल लें।मूलखरी धातु के सिक्कों-सूद से जीम गए ये,सामाँगों तो लेते हैं पंगा।हाटों-बाज़ारों में उछाल दें।
एक आँख से हँसतेपूर्णाहुति की क्या कहते, दूजी से रो लेतेप्रारम्भ अधूरे,शीश काट सिरहाने रखकर मूल्यों के ये सो लेते,ढेर हो रहे बिल्कुल घूरे;पेशेवर उस्ताद सियासीपानी ही जब नहीं रहे, हम-करवाते प्रायोजित दंगा।क्या धोएँ कैसे खँगाल लें?
हाथ थामने को उद्यत, व्रत ही सेवा काअब है मात्र सियासत पूँजी की टकसालें,बेवा सरस्वती हो या क्वाँरी रेवा कापिद्दी चमचे, छुटभैयों को केवल ढालें;क़ौमों धूर्त्त लकड़बग्घों की खातिर निकले येएवज-सिर से बाँधे क़फन तिरंगा।बेहतर है, हम शेर पाल लें।
दिन में ये दिखतेपुत्रवान होने से बेहतर आज निपूते, रातों काट रहे हैं रह-रहकर पैरों को जूते;भूजी भाँग नहीं है घर में इनको दिखता,सरेआम डाके हत्याएँक्या पिसवाएँ, कोई थाना रपट न लिखता।चौबीसो घंटे शिकार पर,रहते हैं ये बिल्ला-रंगा।क्या उबाल लें?
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