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भैरवी त्रितालवागीश्वरी: झपताल
गगन में अरुण पराग भरेसजनि,छवि के दल छवि के सरसिज से खिल-खुल कर बिखरेऋतु मादिनी;मन्धमधुदानिनी मधुरपिकानादिनी।
जवार जागर के अन्तर्मनमलय-सर में उमड़ पड़ेरंगों के संगीत नींद की पलकों पर उतरे;चदन-सुरभि-स्नात दक्षिण पवन,कंुज-कानन मगन, नाद-नन्दित गगन में अरुण पराग भरे।,सांगरागा धरा नयन अभिरामिनी।
कुम्हलाए निशि की वेणी में तारों के गजरेलुब्ध मधु-मकरन्द मुखर मधुकर-निकर,पाते सुमन पवन के चुम्बनराग-स्वर-शर-विद्ध-निमिष-लव-पल-पहर, सजन सेज तज रे;गगन में अरुण पराग भरे।फुल्लमुकुलित लता कनकवर्णांगिनी।
अरुण म´््िजष्ठ द्रुम-शिखर किसलय-ज्वलित,शोकदीपन विरह-विषम-ज्वरतप्तकृत,कुसुमज्वालाशिखा दुसहदुखदायिनी। (20 फरवरी15 मार्च, 1974)
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