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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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प्यास बिखरी हुई है बस्ती में
और समंदर है अपनी मस्ती में
कितना नीचे गिरा लिया ख़ुद को
आप ने शख़्सियत परस्ती में
क्यों करें हम ज़मीर का सौदा
हम बहुत ख़ुश हैं फ़ाक़ा मस्ती में
कल बुलन्दी पे आ भी सकते हैं
ये जो बैठे हैं आज पस्ती में
सूफ़ियाना मिज़ाज है अपना
मस्त रहते हैं अपनी मस्ती में
</poem>
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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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प्यास बिखरी हुई है बस्ती में
और समंदर है अपनी मस्ती में
कितना नीचे गिरा लिया ख़ुद को
आप ने शख़्सियत परस्ती में
क्यों करें हम ज़मीर का सौदा
हम बहुत ख़ुश हैं फ़ाक़ा मस्ती में
कल बुलन्दी पे आ भी सकते हैं
ये जो बैठे हैं आज पस्ती में
सूफ़ियाना मिज़ाज है अपना
मस्त रहते हैं अपनी मस्ती में
</poem>