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|संग्रह=आंख ई समझै / लक्ष्मीनारायण रंगा
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<poem>
ओ जगत है
रात भर बसेरो
थारो न म्हारो

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ओ समंदर
उतार लायो चांद
धरती माथै

{{KKBR}}
कित्ता बस्या है
मिनख में मिनख
खुद नीं जाणै
</poem>
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