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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
गिला करें टेक्स पानियों का तो किस ज़बां से
जहां भी चाहा मिले हमें तो वही किनारे

किसी ने आकर न इनके लंगर कभी भी खोले
कुछ ऐसी थीं किश्तियाँ जो अक्सर रहीं किनारे

कहा था उसको कि गहरे पानी में मत उतरना
दिखाई देते नहीं उसे अब कहीं किनारे

हवाओं की सख्तियां थीं लहरें थी मेहर लेकिन
बदलते रिश्तों की कश्तियाँ भी लगीं किनारे।
</poem>
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