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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
मंज़िलों पर पहुँच कर डगर ख़त्म हो
मौत से ज़िंदगी का ये डर ख़त्म हो

ऐ ख़ुदा रूह को थोड़ा आराम दे
जिस्म से जिस्म तक का सफ़र ख़त्म हो

काश ऐसी दुआ मुझको दे दे कोई
बद दुआओं का जल्दी असर ख़त्म हो

मत बनाओ बहाना नया बारहा
बस करो अब अगर या मगर ख़त्म हो

तीरगी से निकल रौशनी में चलें
दिल के भीतर बुराई का घर ख़त्म हो
</poem>
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