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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
कोई बुत में तराशा जा रहा है
कोई रस्ते में ठोकर खा रहा है

सितम कैसा वो मुझ पर ढा रहा है
मज़ा जीने का मुझ को आ रहा है

ज़मीं दिल की रही बंजर हमेशा
समंदर आँखों से बहता रहा है

ज़रा से लब मेरे क्या मुस्कुराए
तेरा चेहरा उतरता जा रहा है

करो इख़लास की शमअ को रौशन
अँधेरा नफ़रतों का छा रहा है
</poem>
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