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|संग्रह=मेरा क्या / वसीम बरेलवी
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<poem>
जो मिला उसको तअलक़ क गुमां रहने दिया
उसने मेरा ख़्वाब मेरा ही कहां रहने दिया

दुश्मन -ए-तहज़ीब-ए-मशिरक़ और क्या चाहेगा तू
हमने टी.वी. को खुलाला वक़्त -ए-अज़ां रहने दिया

काहे की बहसे मियां , वो हम हुए या तुम हुए
किसने ये िहंदोस्तां िहंदोस्तां रहने दिया

इक दिए का चेहरा कोई दूसरा पढने न पाये
घर के आंगन मे किसी ने वो धुआं रहने दिया

मैं बनाना चाहता था जिसको ग़ािलब की ग़ज़ल
तुमने उस बस्ती मे मेरा घर कहां रहने दिया
</poem>
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