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<poem>
इधर-उधर यहाँ-वहाँ की बात बोलने लगे,
क्या खुशनुमा फ़िज़ा थी आके जह्र घोलने लगे।

लहू-लहू सी ख़ौफ़-ख़ेज़ तुंदख़ू सी ले नज़र ,
कली-कली पे क्यों भला ये भौंरे डोलने लगे।

किसे पता कहाँ से कब फ़िदाइनी अटैक हो,
डरे-डरे से फूल सारे आँख खोलने लगे।

अभी तो ख़्वाब आँख की हैं ड्योढ़ी भी चढ़े नही,
अभी तो रात हँस रही क्यों मुर्गे बोलने लगे।

दरीचा-ए-उफ़ुक़ को कोई कर रहा सियाह गो,
निगह-निगह में लोग 'ज्ञान' सच टटोलने लगे।
</poem>
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