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{{KKRachna
|रचनाकार=कपिल भारद्वाज
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|संग्रह=सन्दीप कौशिक
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<poem>
हजारों मुखोटों के पीछे से,
खनखनाती हंसी हंसता है एक विकृत दिमाग,
जिसकी भयावहता ने लील लिया है,
जल-जंगल पर्वत-नदियों और खलिहानों के नूर को,
और टांक लिया है अपने लखटकिया सूटों में बटन की तरह !

सत्ता के अहंकार से दीपदीपाता उसका मुख,
बेशक नकली प्रसाधनों से उजला रहता है लेकिन,
उसके भीतर बैठे अंधेरे को स्पष्ट देखा जा सकता है,
उसके माथे की त्यौरियो में !

कोई समझाए उसे कि,
चमचमाते सूरज की रोशनी को लाठियों से नहीं पीटा जा सकता,

कोई बताए उसे कि
खील-बताशों सी मीठी हंसी को कप्तानों के बुंटो तले नहीं रौंदा जा सकता !
</poem>
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