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{{KKRachna
|रचनाकार=कपिल भारद्वाज
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|संग्रह=सन्दीप कौशिक
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<poem>
वो नदी,
उस नदी में बहती जलधारा,
उस जलधारा में बहते जलकण,
पैदा करते हैं,
कितना मधुर संगीत ,
जब-जब टकराते हैं,
किसी सूखी चट्टान से !

छिपते सूरज की बेला में,
बहुत मन भाता है वो संगीत,
घूंट-घूंट पी रहा होता हूं,
उस कर्णप्रिय संगीत को,
उतार रहा होता हूं,
अपने ह्रदय में !

सच पूछो तो,
मुझे उसी संगीत का एहसास,
मेरी प्रेमिका की ‘ना’ में भी होता है,
जो, छिपते सूरज की हर बेला में,
मुझे सूखी चट्टान कर देती है !
</poem>
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