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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
गलियों के भूलभुलैए के अन्त में आती है सीढ़ियाँ
चढ़ने पर जिनके पहुँचते हैं
हम उस कोठरी में जहाँ सामने कसीदा कढ़ी चादरें बिछी हैं
चादरों के पार हैं अतीत की कहानियाँ

झमझम धुँघरुओं की आवाज़ में नाचती हैं यादें
सन्दूक नामक भूला हुआ शब्द सुनता है
जिसके अन्दर और चादरें हैं
सौ साल पहले नवेली दुल्हन के साथ आईं
रेशम के धागे मुलायम हाथों से बँधे
उनसे अब भी निकलती है मादक किशोरी महक

ये गलियाँ गौरैयों के जाने के पहले
कहीं चली गई हैं
विलुप्त प्रजाति के जन्तुओं सी उनकी तस्वीरें बनाते हैं हम
और बच्चों को बतलाते हैं
जिनको जल्दी है कि
जादुई पर्दे पर कार्टून आने वाले हैं।

</poem>
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