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|रचनाकार=हस्तीमल 'हस्ती'
|संग्रह=प्यार का पहला ख़त / हस्तीमल 'हस्ती'
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<poem>
इस दुनियादारी का कितना भारी मोल चुकाते हैं
जब तक घर भरता है अपना हम ख़ाली हो जाते हैं

इंसानों के अंतर्मन में कई सुरंगें होती हैं
अपने आपको ढूँढ़ने वाले ख़ुद इनमें खो जाते हैं

अपने घर के आँगन को मत क़ैद करो दीवारों में
दीवारें ज़िंदा रहती हैं लेकिन घर मर जाते हैं

आने को दोनों आते हैं इस जीवन के आँगन में
दुख अरसे तक बैठे रहते सुख जल्दी उठ जाते हैं

एक हिसाब हुआ करता है लोगों के मुस्काने का
जितना जिससे मतलब निकले उतना ही मुस्काते हैं
</poem>