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|रचनाकार=कुमार विकल
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बहुत पीछे छोड़ आया हूँ

अपने शरीर से घटिया शराब की दुर्गंध

जिससे उड़ गये हैं मेरे डर

तुच्छताएँ, कमीनापन.

चट्टान से फूटा है झरना

बह गया मेरा अकेलापन.

सुरमई आकाश के नीचे

कौन है अकेला

कौन है निस्संग.

जब तक बहता है झरना

और मँडराती है

मेरे जिस्म के आसपास

एक पहाड़ी क़स्बे की गंध

मैं नहीं अकेला

मैं नहीं निस्संग.

शहर को लौटूँगा तो

ले जाऊँगा

पलको के बटुओं में सुरमई आकाश

थर्मस में झरनों का जल

और जिस्म में एक पहाड़ी क़स्बे की गंध.