भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
<poem>
जबसे किसी से दर्द का रिश्ता नहीं रहा
जीना हमारा तबसे हीजीना ही जीना नहीं रहा
तेरे ख़यालो-ख़्वाब ही रहते हैं आस-पास
अपनों कोअपनों पर ही भरोसा नहीं रहा
नफ़रतका नफ़रत का ज़ह्र फैला है, लेकिन किसी में आज
मिल-बैठ सोचने का भी जज़्बा नहीं रहा
दारोमदारे-ज़िन्दगी जिसपर था, वो भी तोजैसा समझते थे उसे, वैसानहीं वैसा नहीं रहा
ये नस्ले-नौ है इतनी मुहज़्ज़ब कि इसमें आज
'दरवेश' गुफ़्तगू का सलीक़ानहीं सलीक़ा नहीं रहा
</poem>
Mover, Protect, Reupload, Uploader
6,612
edits