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<poem>
बैसाखां तावड़ ब्रिथा काळ जद कटकाय
मारग चलतौ मांनखौ भव भव में भटकाय

माटी सूं सनमुख हुवै कोपै सूरज क्रुद्ध
झाळां सूं जगती जमीं जांणै छिड़ग्यौ जुद्ध

तावड़ तड़तड़तोह बरसातौ अगन भळैह
मुरझावण धर मुरधरा काळ ज करै कळैह

सूरज ने समझावती धोरां री धरतीह
कह दै बोली काळ ने मां सूं ना उलझीह
</poem>
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