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सड़क / कुमार विकल

3 bytes removed, 16:00, 12 अगस्त 2008
}}मैंने जब बाहर आने का फ़ैसला किया
तो अपने —आपको -आपको उसी परिचित सड़क पर खड़ा पाया
पापलर के पेड़ों की कतारें थीं
एक छोर पर ‘नियोन’बत्तियों ‘नियोन’ बत्तियों से चमकती इमारत थी
जिसके एक कमरे में बैठे वे शराब पी रहे थे
और मेरी कविताओं की ज़िन्दगी जी रहे थे. थे।
मैं जानता था—
वे ‘रम’ के तीन पेग ले चुके होंगे होंगे
और अब—
राजनैतिक राजनीतिक बन्दियों की चर्चा से द्रवित हो
भारती तरफ़दारों* को बचाने की योजना बना रहे होंगे
साथ में फ़ैज़ की ग़ज़लें गुनगुना रहे होंगे.होंगे।
मैं जानता था—
और उस कमरे का हर आदमी
उस जिस्म का क़िस्सा—दर—क़िस्सा दोहराएगा.दोहराएगा।
सड़क के दूसरे छोर पर
भारती तरफ़दार के चेहरे —सी -सी बुझी हुई एक बस्ती थी
जिधर से हर सुबह
भिखमँगी भिखमंगी के लिए आते थे
और अपने अधजगे चेहरों पर
कर्ज़ इतना चढ़ गया था
कि सूद मूलधन से दस दुना बढ़़ बढ़ गया था
और वह सूद ख़ोरों सूदख़ोरों के गुंडों से इतना डर गया था
कि कल रात शीत —लहर -लहर के बावजूद घर नहीं लौटा.लौटा।
वैसे इस बस्ती में घर लौटना कोई ज़रूरी नहीं
सिर्फ़ बच्चे—
दिन भर की भिखमँगी भिखमंगी के बाद
माँ—बाप की पिटाई के डर के बावजूद
कि पापलर के पेड़ों के लम्बे साये
उन्हें जिन्न—भूतों की तरह डराते हैं.हैं।
मैं—
और भारती तरफ़दार का चेहरा
गाली नहीं बनते.बनते।
…मेरे ...मेरे पीछे जगमगाती हुई बत्तियाँ थीं
और सामने कुछ टिमटिमाती हुई लालटेनें
लालटेनों की रौशनी के तले गहरा अँधेराअंधेरा
एक ऐसा अँधेरा—अंधेरा—
जिससे भागकर मैं सड़क पर आया था
‘मुझे रोशनी की ज़रूरत है.’ है।’
हम तुमें रोशनी देंगे.’
मेरे पास बहुत —सी बहुत—सी कविताएँ थीं
उनके पास बहुत—सी सुविधाएँ थीं
रम के तीसरे पैग तक
मेरी कविताओं के अँधेरे अंधेरे को जीता था
लेकिन रम का पाँचवाँ पेग…
मैं रम के पाँचवें पेग से बहुत डरता था
जब मेरी आंखों आँखों का अँधेराअंधेरा
मेरी रीढ़ की हड्डी में ठिठुरने लगता था. था।
...जगमगाती बत्तियाँ बहुत पीछे रह गई हैं
मैं एक टिमटिमाती लालटेन के सामने आ खड़ा हो गया हूँ
और अपनी रीढ़ की हड्डी में
हरारत महसूस कर रहा हूँ. हूँ।
'''भारती तरफ़दार= १९७५ में बहरामपुर की सेंट्रल जेल में कारावार कारावास भुगत रही एक क्रान्तिकारी महिला, जिसकी बीमारी की खबरें ख़बरें उन दिनों पत्र—पत्रिकाओं में छपी थी.थीं।
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