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जुलाहे- सा मन / विनय मिश्र

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किसी नदी का बहना
मुझमें बचा रहा
जाने मन की अमराई में
कैसी हवा चली
मैं उछाह की उंँगली पकड़े
भटका गली गली
किसी धूप के टुकड़े में
दिल लगा रहा

रंग उभरकर आए अक्सर
बीती बातों के
बुनता रहा जुलाहे-सा मन
धागे यादों के
मेला निर्जन में
वसन्त का लगा रहा

हुई उमंगें भेड़ बकरियांँ
जब भी शाम ढली
स्मृतियों की अनगिन छवियांँ
आंँखों में उतरीं
सूरज हुआ गड़रिया
बंसी बजा रहा ।
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