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{{KKRachna
|रचनाकार=गोपाल कृष्ण शर्मा 'मृदुल'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
हरखू सोचे खड़ा-खड़ा।
देखो जिधर, उधर लफड़ा।।
क्या गृहस्थ, क्या संन्यासी,
माया ने सबको जकड़ा।।
कलियुग की महिमा देखो,
जल्दी भरता नहीं घड़ा।।
क्या ईश्वर करवाता है?
हिन्दू-मुस्लिम में झगड़ा।।
आँखों में हँसती ‘हाँ’, पर,
अधरों पर इन्कार जड़ा।।
काली करतूतें, फिर भी,
दर्पण में देखें मुखड़ा।।
जन सेवक राजाओं-सा,
‘मृदुल’ फिरे अकड़ा-अकड़ा।।
</poem>
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|रचनाकार=गोपाल कृष्ण शर्मा 'मृदुल'
|अनुवादक=
|संग्रह=
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हरखू सोचे खड़ा-खड़ा।
देखो जिधर, उधर लफड़ा।।
क्या गृहस्थ, क्या संन्यासी,
माया ने सबको जकड़ा।।
कलियुग की महिमा देखो,
जल्दी भरता नहीं घड़ा।।
क्या ईश्वर करवाता है?
हिन्दू-मुस्लिम में झगड़ा।।
आँखों में हँसती ‘हाँ’, पर,
अधरों पर इन्कार जड़ा।।
काली करतूतें, फिर भी,
दर्पण में देखें मुखड़ा।।
जन सेवक राजाओं-सा,
‘मृदुल’ फिरे अकड़ा-अकड़ा।।
</poem>