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पर नवसृजन का स्वप्न स्वर्णिम, चक्षुओं में नित गढ़ें
संबल बनाकर सत्य को, तुम भी बढ़ो, हम भी बढ़ें
 
हम अनवरत चलते रहें, हो तप्त कितनी भी धरा