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Kavita Kosh से
बल्कि ख़ुश रहकर, नाचते-गाते ज़िन्दा रहने लगते हैं
पीछे छूट गई बारीक़, मटमैली रेत में
मरीचिका जैसा भी कुछ नहीं चमकता
प्रेम की कोई प्रागैतिहासिक तस्वीर टँगी रहती है दीवार पर
कि रोज़-रोज़ मेल-मुलाक़ात मुमकिन नहीं
सारे विस्थापित जान चुके हैं
अब वे किसी गाँव-क़स्बे के निवासी नहीं
कुछ ही दूरी पर जो एक बहुत बड़ा कॉम्पलेक्स है