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|रचनाकार=दीपाली अग्रवाल
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हर सुबह के साथ बेतरतीब जगा
फिर दोपहर और शाम खूब दौड़ाती है
कि मेरी रोज़ की तो तनख्वाह तुम मत पूछो
ये ज़िंदग़ी मुझे मुआवज़े में रात दे जाती है
</poem>
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हर सुबह के साथ बेतरतीब जगा
फिर दोपहर और शाम खूब दौड़ाती है
कि मेरी रोज़ की तो तनख्वाह तुम मत पूछो
ये ज़िंदग़ी मुझे मुआवज़े में रात दे जाती है
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