अरक्षित{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कुमार विकल|संग्रह= रंग ख़तरे में हैं / कुमार विकल}}
वे रोज़ आते हैं
काले नक़ाबों में,चिकने शरीर ,लम्बे बलिष्ठ
पहचाने नहीं जाते.
दुनिया की सबसे ऊँची मीनार जैसी कविता
एक विशाल दीवार जैसी कविता….
शायद यही कविता उसे बचा रही है
एक विशाल दीवार पर
मज़बूत क़दमों से चलती है. रंग— भेद कभी—कभी यह शहर मेरा भी होता है कम से कम उस रोज़ जब कसौली की सुरमई पहाड़ियों पर पर पड़ी बर्फ़ एक साँवली लड़की के दूधिया दाँतों की तरह चमकती है और शहर की धूप से अठखेलियाँ करती है. मैं अपने कविता वर्ष से पहले की कविता लिखता हूँ और सारे शहर म्रें फैल जाता हूँ शराबखानों दोस्तों के अड्डों,प्रियजनों के घर न जाने कहाँ —कहाँ अपनी नवजात कवित को लिए फिरता हूँ. जी मेरी कविता गौरवर्णा नहीं ज़रा साँवली —सी है एक संथाल बच्ची की तरह खुरदरी जो बड़ी हो कर गुलाबी फ़्राक नहीं पहनेगी आइसक्रीम नहीं खाएगी तितली नहीं कहलाएगी नंगे पाँव ही अपने लोगोम के बीच भाग जाएगी. …. लेकिन यह अपने लोग कौन होते हैं किस तरह के घरों में रहते हैं एक नंग —धडंग संथाल कविता के बारे में किस तरह से सोचते हैं. यह मुझे अगली सुबह पता चलता है जब अख़बार में कसौली की बर्फ़ और मेरी कविता के बारे में ख़बरें एक साथ छपती हैं कसौली की बर्फ़ तो श्वेता बन जाती है लेकिन मेरी कविता एक शराबी पिता की काली कलूटी बेटी कहलाती है जिसके शरीर से संभ्रांत लोगों को घटिया शराब की बदबू आती है. उस समय मुझे पहली बार अहसास होता है कि इस शहर में ताँगे क्यों नहीं चलते मैं किसी घोड़े की गरदन से लिपट कर रोना चाहता हूँ और बहुत रोना चाहता हूँ कि जब भी कोई कवि अपनी कस्विता को शहर के संभ्रांत हिस्से में लेकर जाता है, वह हमेशा टूट कर वापिस आता है. लेकिन मेरी कविता— मेरी बच्ची मुझे अपनी साँवली मुस्कान से हर्षाती है उसकी आँखों में कोई सपना नहीं एक विश्वास भरी भाषा है वह मेरी छाती से चिपक जाती है और उसके अँगों की मज़बूती मेरी चेतना में फैल जाती है. समझदार पाँव वक्त के साथ मेरे पाँव बहुत समझदार हो गये हैं और अब वे मेरे चाहने के बावजूद उन घरॊं में नहीं जाते जहाँ कमरों के क़ीमती कालीन मेरी बातों से ख़राब हो जाते हैं. वे उन घरॊं में नहीं जाते जहाँ लोग चुप्पी की शलीन भाषा में कला औ’ साहित्य चर्चाते हैं और एक अच्छी कविता पर आधा इंच से भी कम मुस्काते हैं. वे उन घरों गोष्ठियों में नहीं जाते जहाँ निर्मल वर्मा की कहानी— ‘डेढ़ इंच ऊपर’ पढ़ी तो जाती है लेकिन उसके शराबी पात्र का डेढ़ इंच से अधिक हँसना पसंद नहीं कर पाते . मेरे पाँव जानते हैं मैं केवल हँसता ठीक नहीं गज़ भर लंबे ठहाके लगाता हूँ और डेढ़ इंच उफर उठ कर अपनी कविता सुनाता हूँ. मेरे पाँव जानते हैं— जब मेरी कविता ऐसी जगहों में जाती है हमेशा लड़खड़ाती हुई वापस आती है. और कीचड़ सनी चप्पलों की भाषा वाली कविता कहलाती है मेरे पाँव मेरी कविता से अधिक संवेदनशील हो चुके हैं. अज्ञातवास का अंतिम दिन आज मेरे अज्ञातवास का अंतिम दिन है यह उन भूमिगत दिनों जैसा अज्ञातवास नहीं जब मैं और मेरे साथी जेबों में बीड़ियाँ और दियासिलाई की डिब्बियाँ झोलों में किताबें और दिमागों में कुछ विचार— रखने के अपराध में ख़तरनाक घोषित कर दिये गये थे नहीं यह एक थकन भरी यात्रा का विश्राम—खंड नहीं जिसमें मैं इस यात्रा के अनुभव —बिम्बों को अपने बचपन के खिलुअनों किशोर दिनों के ग़रीब कपड़ों और जवानी के संकल्पों के साथ संजोना चाहता हूँ दरसल यह मेरी एक चोर यात्रा का आखिरी पड़ाव है जहँ मैं उन लोगों की ठीक पहचान करता हूँ जो इस यात्रा में ख़रगोशों की तरह मेरे पास आए छोटी—मोटी झूठी— सच्ची सुख—सुविधाएँ लाए लेकिन जब— मेरे झोलों की किताबों को देखा दिमाग़ के विचारों को समझा तो एक दम भेड़ियों की तरह गुर्राए उस वक़्त मुझे— कवि सर्वेश्वर बहुत याद आए ‘तुम मशाल जलाओ भेड़िया भाग जाएगा’ तब मैंने अपनी बीड़ी सुलगाई और मेरे विचार मशालों की तरह जल उठे.