भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
डर के मारे मैंने आँखें कीं बद ।
बीत गये कई सल …
लेकिन अब भि तो मेरा है वही हाल ।
एक उसी घटना को पाता मक़िं नहीं भूल ।
याद मुझे आती :
ज्यों आते थे याद वर्ड्सवर्थ को डैफ़ोडिल फूल ।
दीखतीं अँधेरे में हैं मुझको अब भी
चमकीली, तेज़, बेधतीं, सम्मोहन करतीं-
बिल्ली की दो आँखें …
अन्धकार पाप है । और
अज्ञान भी ।
लेकिन जिसको बेधें बिल्ली की आँखें-
रहकर अँधेरे में भी, प्प्प क्या करेगा वह-
घूरती हुई आँखों की स्थिति का ज्ञानी ।