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सूरज / इरशाद अज़ीज़

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|संग्रह= मन रो सरणाटो / इरशाद अज़ीज़
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<poem>
रात सुपना बुणै
दिन हुवै कै
चाल पड़ै बो आपरै मारग
दूजां नै बांटतो उजाळो
आखी रात अंधारै मांय
गणमण करतौ रैवै
नीं ठाह कांई कैवै है
किणनैं कैवै है
बापड़ो सूरज
आपो-आपरी दुनिया मांय
भमतो रैवै।
</poem>
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