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है कोई ऐसा परउपगारी, हरि सूँ कहै सुनाइ रे॥
ऐसे हाल कबीर भये हैं, बिन देखे जीव जाइ रे॥307॥
'''भावार्थ'''- कबीर स्वयं को विरहिणी मानते है। उनकी आत्मा रूपी विरहिणी कहती है हे वल्लभ! हे प्रियतम! हे परमात्मा! मेरे घर आओ। घर आने से यहां पर उनका अर्थ आत्मा में परमात्मा के मिल जाने से है। परमात्मा तुम्हारे बिना यह मेरी देह बहुत अधिक दुख पा रही है। सारे लोग मुझसे कह रहे हैं कि मैं (कबीर) तुम्हारी धर्मपत्नी हूं लेकिन मैं यह कैसे मान लूं। मुझे तो इस बात में पूरा संदेह है क्योंकि यदि मैं तुम्हारी स्त्री होती (पत्नी होती) तो तुम मेरे साथ मेरे घर पर एक ही शैया पर शयन करते। हे परमात्मा! तुम तो मेरे पुकारने पर भी घर नहीं आ रहे हो। यह कैसा स्नेह है ? तुम्हारे बिना मुझे इस संसार की किसी भी वस्तु से मोह नहीं बचा है। मेरे मन को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। यहां तक कि मैं नींद भी नहीं ले पा रहा हूं। मेरा मन , घर में तथा वन में कहीं पर भी धीरज नहीं रख पा रहा है। जैसे किसी कामी व्यक्ति को काम प्यारा होता है, जैसे किसी प्यासे व्यक्ति को पानी की इच्छा होती है उसी प्रकार से मेरी आत्मा रूपी पत्नी को परमात्मा रूपी पति की जरूरत है। क्या इस संसार में कोई ऐसा परोपकारी है जो मुझ पर यह परोपकार करें और परमात्मा से जाकर मेरे मन की सारी बातें, मेरे सारे भाव सुना दे। कबीर कह रहे हैं कि परमात्मा के बिना मेरी स्थिति, मेरी दशा दयनीय हो गई है। यदि परमात्मा मुझे दर्शन नहीं देंगे तो मेरे प्राण ही निकल जाएंगे।
 
*विशेष- कबीर यहां पर आत्मा और परमात्मा के मिलन की बात कर रहे हैं। दांपत्य जीवन के उदाहरण द्वारा एक विरहिणी अपने प्रेम के प्रति एक निष्ठ भाव की बात करती है। परमात्मा से मिलने की परम इच्छा तथा सांसारिक विषय- वस्तु से मोहभंग का चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
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