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जीवन सार / लावण्या शाह

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अतिरेक, व्यतिरेक है
जीवन जीने का उपक्रम
अब हुआ, जहां पहुँच कर
हुआ, कई बातों पर खेद !

अत्मा का सत्य नित्य
बनता बिगड़ता पल बिता
एक वही हंस रूप शाश्वत
रह मौन साक्षी सा अनित्य
चल रहा यात्रा पर अनुसिक्त !
अब सत्य को पहचानो
शाश्वत जो उसे जानो
न रहा कोइ न रहेगा मानो
जीवन यज्ञ को उत्सव ठानो !
~✽~
- लावण्या दीपक शाह
पत्रिका : विश्वगाथा से
सम्पादक : श्री पंकज त्रिवेदी

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