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<span class="mantra_translation">
विदर्भ देश के भार्गव ने पूछा ऋषि पिप्पलाद से,<br>
कुल देवता कीने प्रजा को, धारें किसके प्रसाद से।<br>
करते प्रकाशित कौन इसको, श्रेष्ठ कौन महिम महे?<br>
है प्रश्न मेरा प्रथम यह, अति विनत हूँ कृपया कहें॥ [ १ ]<br><br>
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अति पूज्य ऋषि ने भार्गव से कहा, कि आकाश ही,<br>
अति प्रमुख देव प्रसूत उससे , अग्नि जलवायु मही।<br>
तब वाक् चक्षु, श्रोत्र, मन, स्व शक्ति के अभिमान से,<br>
कहने लगे कि शरीर के , हैं हम ही धारक मान से॥ [ २ ]<br><br>
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उनसे कहा अति महिम प्राण ने, त्याग दो स्व अहम को,<br>
मैं प्राण हूँ अति श्रेष्ठतम, क्यों भूलते मुझ प्रथम को।<br>
मैनें स्वयं को ही विभाजित, पाँच भागों में किया,<br>
तुमने तो बस धारक प्रकाशक, बन के प्राणों को जिया॥ [ ३ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
तब प्राण गर्व से उर्ध्व को , गतिमान व् उन्मुख हुए,<br>
अब अन्य देवों के गर्व भंग, व् सिद्ध प्राण प्रमुख हुए।<br>
एव स्वत्व प्रभुता प्राण की, मधराज के सम सिद्ध है,<br>
मन श्रोत्र वाणी , नेत्र प्राण के स्वत्व से आबद्ध है॥ [ ४ ]<br><br>
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यही तप्त होता अग्नि रूप में, प्राण ही दिनमान है,<br>
यही मेघ वायु इन्द्र पृथ्वी, देव रयि भी प्राण है।<br>
सत असत से भी श्रेष्ठ जो परमात्मा अमृतमयी,<br>
वह भी यही यह प्राण है, जग प्राण मय स्वस्ति मयी॥ [ ५ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
रथ चक्र नाभी के अरे, ज्यों नाभि के आधीन है,<br>
त्यों जग की सात्विक शुची क्रियायें प्राण में ही विलीन हैं।<br>
ऋग, साम यजुः की शुचि ऋचाएं , ब्रह्म क्षत्रिय की क्रिया,<br>
का प्राण ही आधार जिसने जीव संचालन किया॥ [ ६ ]<br><br>
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