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{{KKRachna
|रचनाकार=अंबर खरबंदा
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|संग्रह=
}}
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<poem>
ये सच है मैं वहां तनहा बहुत था
मगर परदेश में पैसा बहुत था
वो कहता था बिछुड़ कर जी सकोगे
वो शायद अबके संजीदा बहुत था
बिछड़ते वक्त चुप था वो भी, मैं भी
हमारे हक़ में ये अच्छा बहुत था
</poem>
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ये सच है मैं वहां तनहा बहुत था
मगर परदेश में पैसा बहुत था
वो कहता था बिछुड़ कर जी सकोगे
वो शायद अबके संजीदा बहुत था
बिछड़ते वक्त चुप था वो भी, मैं भी
हमारे हक़ में ये अच्छा बहुत था
</poem>