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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
इस दौर में इंसान का अहवाल है क्या
लगता ही नहीं वो कभी इंसान भी था
तहज़ीब का सूरज जो सरे-औज चढ़ा
क़द उसका घटा ऐसा कि घटता ही गया।

</poem>
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