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प्रकृति-परी / सुधा गुप्ता

401 bytes removed, 09:37, 4 दिसम्बर 2020
<poem>
प्रकृति - परी
हाथ लिये घूमती
जादू की छड़ी
‘चिरवौनी’ करती है
पिकी, चोंच मार के
 
चाँदनी स्नात
शरद-पूनो रात
भोर के धोखे
पंछी चहचहाते
जाग पड़ता वन
मायके आती
कड़की, डरे, झरे
बड़ी सुबह
सूरज मास्टर दा’
किरण-छड़ी
ले, आते-धमकाते
पंछी पाठ सुनाते
सलोनी भोर
सोई राज कन्या-सी
सज के सजके बैठी
आकाश की अटारी
बालिका-बधू
कान चुरा ले भागी
जी भर जीभर जीना
गाना-चहचहाना
पंछी सिखाते:
खिले इतने घने
सूरज मुखीसूरजमुखी
सूर्य दिशा में घूमें
पूरे दिवस
पेड़ हैरान
पूछें- हे भगवान्!
इंसानी त्मिप्सालिप्सा
हम क्या करेंगे जी?
कट-कट मरेंगे जी?
अक्षितिज सजी थी
छींेंटेछींटे, बौछार
भिगो, खिलखिलाता
शोख़ झरना
स्पफटिक स्फटिक की चादर
किसने जड़े मोती?
गुलमोहर सजे
हरी पोशाक
चोटी में गूँथे पूफल फूल
छात्राएँ चलीं स्कूल
अजब जादूगरी
बढ़ता जायेजाएध्रती धरती का बुख़ार
आर न पार
उन्मत्त है मानव
दिवा अमल
सरि में हलचल
पाल ध्वलधवलखुले जो तट बँध्बन्ध
नौका चली उछल
पेंफकता फेंकता आग
भर-भर के मुट्ठी
धरा झुलसी
रात के साथी
सब विदा हो चुके
पैफली फैली उजास
अटका रह गया
पफीके फीके ध्ब्बे-सा चाँद
आया आश्विन
सृष्टि सुन्दरी
पिफर पिफर फिर- फिर रिझाती
मत्त यौवना
टूट जाता संयम
अनादि पुरूष पुरुष का
मैल, कीचड़
सड़े पत्तों की गंध्गंध
लपेटे तन
बंदर-सी खुजाती
सिर पे ताज
पीठ पर है दाग्­ादाग­ा
गीतों की रानी
गाती मीठा तरानाµतरानावसन्त! पिफर फिर आना
प्रिय न आए
आ गया पौष
लाया ठण्डी सौगातें
बप़्ार्फीली बर्फ़ीली रातें
पछाड़ खाती हवा
कोई घर न खुला