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<poem>
प्रकृति - परी
हाथ लिये घूमती
जादू की छड़ी
‘चिरवौनी’ करती है
पिकी, चोंच मार के
मायके आती
कड़की, डरे, झरे
सलोनी भोर
सोई राज कन्या-सी
आकाश की अटारी
बालिका-बधू
कान चुरा ले भागी
गाना-चहचहाना
पंछी सिखाते:
खिले इतने घने
सूर्य दिशा में घूमें
पूरे दिवस
पेड़ हैरान
पूछें- हे भगवान्!
इंसानी त्मिप्सालिप्सा
हम क्या करेंगे जी?
कट-कट मरेंगे जी?
अक्षितिज सजी थी
भिगो, खिलखिलाता
शोख़ झरना
किसने जड़े मोती?
गुलमोहर सजे
हरी पोशाक
चोटी में गूँथे पूफल फूल
छात्राएँ चलीं स्कूल
अजब जादूगरी
बढ़ता जायेजाएध्रती धरती का बुख़ार
आर न पार
उन्मत्त है मानव
दिवा अमल
सरि में हलचल
पाल ध्वलधवलखुले जो तट बँध्बन्ध
नौका चली उछल
भर-भर के मुट्ठी
धरा झुलसी
रात के साथी
सब विदा हो चुके
अटका रह गया
आया आश्विन
सृष्टि सुन्दरी
मत्त यौवना
टूट जाता संयम
अनादि पुरूष पुरुष का
मैल, कीचड़
सड़े पत्तों की गंध्गंध
लपेटे तन
बंदर-सी खुजाती
सिर पे ताज
पीठ पर है दाग्ादागा
गीतों की रानी
गाती मीठा तरानाµतरानावसन्त! पिफर फिर आना
प्रिय न आए
आ गया पौष
लाया ठण्डी सौगातें
पछाड़ खाती हवा
कोई घर न खुला