भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
137 bytes added,
23:43, 17 दिसम्बर 2020
<poem>
सर से पा तक दर्द पहन कर बैठे हैं अब लोगों को कौन बताए क्या सच हैनाकामी सब की गर्द पहन कर बैठे हैं आंखों के आगे धुंधला सच है
ख़ुशहाली के जो वादे भेजे तुमनेकोई भी तैयार नहीं है पीने कोघर वक़्त के सारे फ़र्द पहन कर बैठे हैं हाथों में इतना कड़वा सच है
हरियाली जेसै भी हो हज़्म तुझे करना होगामेरे बेटे ये तेरा पहला सच है अपनी आंखें धोका भी खा सकती हैंझूट ने सर से पावं तलक पहना सच है हाथ क़लम होने के ख़्वाब बाद में डूबे सारे पेड़ सोचेंगेतन पर कपड़े ज़र्द पहन कर बैठे हैं यार अभी जो लिखना है लिखना सच है झूट लिखेंगे हम तो क़लम की है तौहीनहम को अपनी ग़ज़लों में लिखना सच है
अगले सीन की तैयारी में सब किरदार
अफ़साने का दर्द पहन कर बैठे हैं
लहजे में गर्माहट और जज़्बों में
हम सब मौसम सर्द पहन कर बैठे हैं
</poem>